Kambal Aalas ka
फिर बिस्तर पर तू क्यूँ पडा़
हटा भी दे कम्बल आलस का,
कदमों पे हो जा तू खड़ा।
सोता है वो खोता है,
जीवन भर बस वो रोता है,
लिखा ही नहीं था किस्मत में,
कहना उसका ये होता है।
जो दुखी रहे प्रभु को कोसे,
तुम दूरी उनसे लो बढ़ा।
हटा भी दे कम्बल.......
जाड़ा-गर्मी, धूप-छाँव
और बारिश को भी झेला है,
तभी तो लग पाता पेड़ों पर,
फल-फूलों का मेला है।
तू फल की चिंता मत कर साथी
मंज़िल पर बस नज़र गड़ा।
हटा भी दे कम्बल.........
मिलेगा क्या सुख उनको,
हैं जो छुपते पेड़- पहाडों में,
लड़ता जो दुनियाँ में रहकर,
बनता वो योगी हज़ारों में।
तुम लगा के चंदन गुरू-वंदन कर,
धनुष पे लो बस तीर चढ़ा।
अब हटा भी दे कम्बल.........
- शशांक पाण्डेय (astitve93@gmail.com)
Bhaiya it is very inspiring one
जवाब देंहटाएंआलस्य त्यागकर आगे बढ़ने को प्रेरित करने वाली सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही उत्प्रेरित कविता है श्रीमान।
जवाब देंहटाएंअतिसुंदर जोश से भरे हुए शब्द ।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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