लेखक: अभिनंदन शर्मा 


पुस्तक पर प्रथम दृष्टि डालने पर लगा कि शायद किसी अघोरी बाबा ने अपनी ही कोई गीता सुनाई है। आवरण पलटने पर ज्ञात हुआ कि यह उसी भगवद्गीता पर आधारित उपन्यास है जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई थी। इससे पहले मैंने हिंदी अनुवाद से भगवद्गीता को दो बार पढ़ा है। किंतु उसे पढ़ना इतना रसपूर्ण कभी नहीं लगा जितना इस उपन्यास को पढ़कर लगा। शायद मेरी बुद्धि का स्तर वो नहीं है जो इतने महत्वपूर्ण ग्रंथ को आसानी से समझ पाता। भगवद्गीता के गूढ़ विषय को शास्त्र सम्मत और व्यावहारिक प्रसंगों द्वारा प्रस्तुत करना लेखक की  विशेष प्रतिभा को दर्शाता है। कहानी धीरे-धीरे आगे बढ़ती है और जिज्ञासा के अंकुर भी फूटने लगते हैं। पहले रसहीन जान पड़ने वाला विषय अब रसास्वादन कराने लगता है। ऐसा भी प्रसंग आता है जब पाठक स्वयँ ही अश्रु बहाने लगता है। कर्त्तव्य बोध का जागरण होता है और अनायास ही प्रार्थना मुद्रा में हाथ उठ जाते हैं। अघोरी बाबा के निर्देश पर गीताजी स्वयँ अनेकों रहस्य उद्घाटित करती हैं।

भाषा शैली मुग्ध करने वाली है। लेखक के साथ पाठक भी यात्राओं में सहयात्री बन जाता है और लेखक के साथ होने वाली घटनाओं को बहुत निकट से देख पाता है। इस प्रकार गीता के मर्म को समझने की योग्यता धीरे-धीरे विकसित होने लगती है किंतु जिज्ञासा रूपी प्यास और भी बढ़ जाती है। इसी बीच यात्रा का पहला पड़ाव आ जाता  है।
यह पहला पड़ाव यात्रा को वापस  वहीं से शुरू करने की प्रेरणा भी देता है जहाँ से यात्रा शुरू हुई थी ।अर्थात पुस्तक को एक बार और पढ़ने को उत्प्रेरित करता है ताकि जो अनदेखा रह गया उसे भी देख लिया जाए।

सरल भाषा में रचा गया सभी के लिए पठनीय एक उत्तम उपन्यास।

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