खोया जिसने उत्साह,
खोया उसने सबकुछ।
अनमोल रतन- सा जीवन
लगने लगे फिर तुच्छ।
मन की आंखें खोल रे पगले,
क्यों जाती हैं बुझ।
तेरा तुझको मिल जाएगा,
लगा ज़रा सुध-बुध।
जीवन के भी खेल तो देखो,
हैं कितने अद्भुत!
महलों से निकलने वाला
एक दिन बन जाता है बुद्ध।
तू मात- पिता के शीश नवां
और कर ले मन को शुद्ध।
बन जा फिर तू उत्साही
और जीत ले सारे युद्ध।
काम क्रोध मद मोह लोभ
से हो जाता है मुक्त।
हे प्रभु! कर दो मुझको
इस दैवीय गुण से युक्त।
गिर कर उठना उठकर गिरना
ये तो लगा ही रहता है।
उत्साह अगर गिर जाए,
फिर क्या जीवन में रहता है।
- शशांक पाण्डेय
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