अरे-अरे तुम्हें नहीं पता। तुम्हारे पड़ोस में एक लड़के को कोरोना हो गया है।
क्या? हाँ, तुम्हारी गली में शुरुवाती घरों में से एक में। पता है, वो लड़का कहीं बाहर से आया है जिसे कोरोना है। पुलिस आयी थी और पकड़कर ले गयी थी उसे। और तो और घर के बाहर पर्चा चिपका हुआ है जिसमें साफ-साफ लिखा है-" कोरोना से सावधान।"
अब उस घर के पास से गली में कोई नहीं निकलता था। बीस फुट चौड़ी सड़क के दूसरे कोने से होकर लोग आते-जाते थे।निकट के तीन घरों को छोड़कर उस घर के लोगों से अब कोई नहीं बोलता था।उन तीन घरों के अलावा गली भर के सब लोग तथा आस पास की गलियों तक हल्ला मच चुका था। लेकिन आश्चर्य की बात तो यह थी कि जिस घर की बात चल रही थी, उन्हें ऐसी कोई जानकारी नहीं थी। पड़ोस के अलावा गली के ही दो शुभचिंतकों ने फ़ोन करके हाल-चाल पूछा, लेकिन कोरोना के डर से दूरी बनाए रखी। पिताजी के एक मित्र जो हमारी ही गली में रहते थे, उन्होंने कहा "बाहर से कुछ मंगवाना हो तो बता देना, मैं लाकर दे दूँगा।" उनका इतना कहना ही हमारे लिए बड़ा संतोषजनक था।
इस प्रकार बात फैलते-फैलते एक दिन हमारे कानों में भी पड़ी। माँ को विशेषकर पीड़ा पहुंची थी यह जानकर।आश्चर्य और क्रोध दोनों ही समिश्रित थे हमारे भावों में।

एक दिन हुआ कुछ यूँ कि एक सब्जी बेचने वाले से सब्जी लेते हुए माँ ने ज्यों ही पैसे देने हेतु हाथ आगे बढ़ाया, त्यों ही गली में पीछे से एक आवाज आई।"कोरोना है इस घर में, कोरोना।"
पलक झपकते ही एकाएक सब्जी बेचने वाले ने अपना बढ़ता हुआ हाथ खींच लिया और बोला-"पैसे बाद में दे देना। चेतावनी भारी आवाज सुनकर वो सकपका गया था।बहुत समझाने और अनुनय-विनय करने के बाद वह माना और पैसे लेकर चला गया। इस घटना के बाद माँ का हृदय बहुत दुःखी हुआ। तब जाकर उनको समझ आया कि हर जगह अफवाह फैली है कि उनके पुत्र को कोरोना हुआ है।

पिछले दिनों उनका छोटा बेटा वहीं कोई 100 किलोमीटर दूर एक साक्षात्कार के लिए गया था किंतु लॉकडाउन के चलते 2 माह से घर नहीं लौट पा रहा था।बहुत परेशानियों को झेलते हुए किसी प्रकार घर वापस पहुँचा था। घर पहुँचते ही लंबी थकान के बावजूद प्राथमिक चिकित्सालय जाकर अपनी यात्रा का पूरा ब्यौरा देते हुए जाँच की माँग की थी उसने। वहाँ उपस्थित चिकित्सकों ने एक दूरभाष नं०देते हुए कहा था-" इस नं० पर फोन कर लेना, जाँच करने वाले डॉक्टर घर पर आकर आपकी जाँच करेंगे और आवश्यक होने पर आपको क्वारन्टीन(संगरोधित) भी कर सकते हैं।"
उसने ठीक वैसा ही किया ।तत्पश्चात डॉक्टर घर पर आये और उसके ही कहने पर 14 दिनों के लिये उसे घर में ही रहने को कह गए। साथ ही एक पर्चा भी दरवाजे के बाहर लगा गये जिसमें लिखा था-"सावधान !कोरोना से खतरा। इस घर में न जायें" साथ ही उस दिन की तारीख और 14 दिन बाद कि तारीख़ लिख गये थे। उन्होंने यह भी कहा था कि कोई समस्या हो तो संपर्क कर लेना।
उसी शाम बरसात होने लगी और पर्चा गीला होकर गिर गया। पिताजी ने टेप से अच्छी तरह चिपकाकर इसे दोबारा वहीं लगा दिया।

7 दिन बीत जाने के बाद भी 1-2 लोगों के अलावा किसी ने खोज-खबर न ली किन्तु अफवाह बराबर फैलती रही।बारहवाँ दिन आते-आते न तो कोरोना का पर्चा रहा न कोरोना स्वयँ। लेकिन अफवाहों के चलते लोगों के रवैये की समझ माँ समेत घर के सभी सदस्यों को हो चुकी थी। सब्जी बेचने वालों का एक दूसरे से यह कहना कि " उस गली में मत जाना-वहाँ कोरोना है",लोगों का सौतेला व्यवहार और गली के कुछ मुँहफट लोगों द्वारा अफवाह को हवा देना-चौदह दिन बाद भी मन को कचोटता रहा।

बिना सत्य को जाने ही जब लोगों ने मिथ्या धारणा को इतना फैलाया और सामाजिक दूरी बना ली तो यदि वास्तव में ही कोरोना हुआ होता तो क्या ऐसा समाज जीने देता?
पुलिस की कोई गतिविधि न होने पर भी मनघडंत कहानी में पुलिस को ले आना क्या यह नहीं बताता कि लोग दूसरों की समस्याओं में भी मनोरंजन ढूँढ लेते हैं। समाधान न सही किन्तु बाधा अवश्य बन जाते हैं।
समाचारों में सुनने को मिल ही जाता है कि अमुक चिकित्सक जो कोरोना रोगियों  की चिकित्सा में दिन-रात खपा देते हैं, जब अपने घर वापस जा रहे थे तो सोसायटी वालों ने अंदर आने ही नहीं दिया। ऐसी संवेदनहीनता क्या समाज को जोड़े रख सकती है?
सच तो यह है कि सामाजिक ताने-बाने का सूत्र ही टूटा हुआ है जिसे संवेदनशीलता कहते हैं।


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